बहुत ही है प्यासा।
बढ़ता ही जा रहा
हर तरफ बाहें फैलाता
गला घोंटने को है उतावला,
यह शहर मेरा।
कांक्रीट की यह इमारतें
निकल पड़े हैं हर गलि,
हर मुहल्ले, हर रास्ते,
हरियाली पर कर प्रहार,
न जाने किस मुकाम की है तालाश।
खामोश बैठा सिसकियां भरता।
दो गज़ जमीन का वह टुकड़ा।
पेड़ों कि सजीवता बरकरार रखने कि चेष्टा
पत्थर की दीवारों पर विफल सर कूटता।
भूल गए हैं रास्ते परिंदे,
अट्टालिकाएं जो उनके पथ पर पाते खड़े।
हर शाम को मेरा बालकनी को मैं निराश पाता।
दूर श्रितिज पर
सूरज की रंगों की बौछार का दृश्य से वंचित रहता।

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