कुछ लोग आकर पेड़ की डाली काट कर चले गए।
बहुत बड़ा हो गया था न पेड़!
रास्ते के उपर चले आने कि हिमाकत दिखाई थी।
इंसान की दुनिया में अनाधिकार प्रवेश कर गया था।
ट्राफिक लाइट्स के साथ लुका-छिपी खेलते हुए
राह चलते गाड़ियो के लिये मुसीबत पैदा कर रहा था।
केबल टीवी के तारों पर बीच बीच में बेवजह रौब जमाया करता था।
इन बातों से आदमी को गुस्सा आ रहा था।
आखिर पेड़ की इतनी हिम्मत
कि बिना उसका सम्मति लिये ही
वह स्वयं बढ़ा जा रहा था?
मानव जाति के उत्कृष्ट मनोभाव ने
इस बात को असहनीय बना दिया था।
अतः पेड़ को तो सज़ा मिलनी ही थी।
उसे कटना ही था!
आज धूप की खुशी का कोई ठिकाना न था।
बेआब्रू धरती पर धूप इस कदर बरसा,
जैसे अर्जुन का गांडीव से सहस्र तीर निकलकर
पितामह भीष्म को तीरों की सेज पर लिटा दिया था।
धूप की मार से बेहाल कुत्ता,
जीभ निकाल कर,
लेटकर हांफता रहता है।
और आदमी इन्तज़ार का क्षन गुजारता है।
उसकि आंखे खोजती है,
नीला अम्बर में विचरन करते हुए,
कुछ टुकरे बादल के।